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Ujjain Panchkoshi Yatra Ka Mahattw aur Tarikh

Ujjain Panchkoshi Yatra Ka Mahattw aur Tarikh, kab se shuru hogi panchkosi yatra 2025, जानिए ख़ास बातें उज्जैन के पंचकोशी यात्रा के बारे में.       Ujjain panchkosi yatra 2025: 23 april 2025 से उज्जैन में शुरू होगी पंचकोशी यात्रा जिसमे की श्रद्धालुगण ११८ किलोमीटर की यात्रा करते हैं पैदल वो भी 5 दिन में. इस यात्रा की शुरुआत उज्जैन में नागचंद्रेश्वर मंदिर से होती है जहाँ से भक्त बल लेते हैं और फिर अमावस्या के दिन शिप्रा नदी में स्नान करके इस यात्रा को समाप्त करते हैं. यात्रा के दौरान प्रमुख पड़ाव पिंगलेश्वर, करोहन, अंबोदिया, जैथल और उंडासा होते हैं.  Ujjain panchkosi yatra 2025 आइये जानते हैं ख़ास बातें उज्जैन के पंचक्रोशी यात्रा के बारे में : ये यात्रा हिन्दू पंचांग के अनुसार वैशाख महीने में होती है.  ये यात्रा वैशाख महीने के कृष्ण पक्ष की दशमी तिथि से शुरू होकर अमावस्या को समाप्त होती है.  इस यात्रा के समय सूर्य अपने उच्च राशि मेष में राहते हैं.  ये यात्रा 5 कोस की रहती है.  Ujjain panchkosi yatra 2025 ये यात्रा पटनी बाजार स्थित नागचंद्र...

Devi Atharvashirsh Ke Lyrics or Fayde

देवी अथर्वशीर्ष | Om Sarve Va Deva | Devi Stuti Mantra| Devi Atharvashirsha || meaning of Sri Devi Atharvashirsha in Hindi.

देवी अथर्वशीर्ष  अथर्ववेद में दिया गया है | देवी अथर्वशीर्षम् में देवी को ही परब्रह्म कहा है! वे ही निमित्त तथा उपादान कारण स्वरूपा है ऐसा प्रतिपादन किया है | इसके पाठ से देवी की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है कि साधक आश्चर्यचकित हो उठता है। इस Devi Atharvashirsha के जाप से पांचों अथर्वशीर्ष के जाप का फल मिलता है | 

१०८ पाठ से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है|

इसका सायंकाल में अध्ययन करनेवाला दिनमें किये हुए पापों का नाश करता है , प्रात:काल अध्ययन करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापों का नाश करता है । दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है । मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है । नयी प्रतिमा पर जप करने से देवतासान्निध्य प्राप्त होता है । प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है । जो इस प्रकार जानता है , वह महामृत्यु से तर जाता है । इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।

देवी अथर्वशीर्ष | Om Sarve Va Deva | Devi Stuti Mantra| Devi Atharvashirsha || meaning of Sri Devi Atharvashirsha in Hindi.
Devi Atharvashirsh Ke Lyrics or Fayde

कैसे करें देवी अथार्वशिर्ष का पाठ :

शुभ महुरत में या फिर नवरात्री में स्नान करके देवी की पंचोपचार पूजा करें और फिर devi atharvashirsh का पाठ शुरू करें | १०८  पाठ करने का संकल्प ले |

Lyrics of Devi Atharvashirsh:


ऊँ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ॥१॥

साब्रवीत्- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यम् च ॥२॥

अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ॥३॥

वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ॥४॥

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।

अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ॥५॥

अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ॥६॥

अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।

अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।

य एवम् वेद। स देवीं सम्पदमाप्नोति ॥७॥



ते देवा अब्रुवन्-

नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।

नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥८॥


तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।

दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥९॥


देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति

सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥१०॥


कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।

सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥११॥


महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।

तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥१२॥


अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव

तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥१३॥


कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।

पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥१४॥


एषात्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या ।

य एवं वेद स शोकं तरति ॥१५॥


नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ॥१६॥


सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादशरुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः । सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च ।


सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।


सैषा सत्त्वरजस्तमांसि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः ।


सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । कला काष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम् ।


पापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।

अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्॥१७॥



वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् ।

अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥१८॥


एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः

ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥१९॥


वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्

सुर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।

नारायणेन संमिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः

विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥२०॥


हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभां

पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।

त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥२१॥



नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।

महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥२२॥


यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।

यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता । यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।


यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा । एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।


एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥२३॥


मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।

ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।

यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥२४॥


तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।

नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥२५॥


इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति ।

इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति शतलक्षं प्रजप्त्वाऽपि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति ।


शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ।

दशवारं पठेद्यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।

महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥२६॥


सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।

सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति ।


नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति ।

प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।


भौमाश्विन्यां महादेवीसन्निधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।

स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत् ॥२७॥

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Meaningof Devi Atharvashirsh in Hindi :

ॐ सभी देवता देवी के समीप गये और नम्रता से पूछने लगे – हे महादेवि तुम कौन हो ? |

उन्होंने कहा – मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ । मुझसे प्रकृति – पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है ॥

मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ । मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ । अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ । पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ । यह सारा दृश्य–जगत् मैं ही हूँ ॥

वेद और अवेद मैं हूँ । विद्या और अविद्या भी मैं, अज्ञा और अनजा  भी मैं, नीचे –ऊपर, अगल–बगल भी मैं ही हूँ ॥

मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ । मैं आदित्यों और विश्वदेवों के रूपों में फिरा करती हूँ । मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्निका और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण–पोषण करती हूँ ॥

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ । त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ॥

देवों को उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमान के लिये हविर्द्रव्योंसे युक्त धन धारण करती हूँ । मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में मुख्य हूँ । मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ । मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धिवृति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है ॥

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है । बड़े- बड़ों को अपने- अपने कर्तव्य में प्रवृत करनेवाली कल्याणकर्त्री को सदा नमस्कार है । गुणासाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है । नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं॥

उस अग्नि के-से वर्णवाली, ज्ञान से जगमगानेवाली दीप्तिमती, कर्म फल प्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करनेवाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है ॥

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते है । वह कामधेनुतुल्य आनन्दायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग् रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये ॥

कालका भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ॥

हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते है । वह देवी हमें उस विषय में ( ज्ञान-ध्यान में ) प्रवृत करें ॥

हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुई और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ॥

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि – इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स – वर्ण, मातरिश्वा – वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र ( ल), पुन: गुहा (ह्रीं), स, क, ल – वर्ण और माया (ह्रीं ) – यह सर्वात्मिका जगन्माताकी मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ॥

ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये ‘श्रीमहाविद्या ’ हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है ॥

भगवती ! तुम्हें नमस्कार है । माता ! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो ॥

( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं – ) वही ये अष्ट वसु है; वही ये एकादश रुद्र हैं; वही ये द्वादश आदित्य हैं; वही ये सोमपान करनेवाले और सोमपान न करनेवाले विश्वदेव हैं; वही ये यातुधान ( एक प्रकार के राक्षस ), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्धि हैं; वही ये सत्व–रज–तम हैं; वही ये ब्रह्म-विष्णु – रूद्ररूपिणी हैं; वही ये प्रजापति – इंद्र-मनु हैं; वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं; वही कला- काष्ठादि कालरूपिणी हैं; उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष देनेवाली, अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेनेयोग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं ॥

वियत् – आकाश (ह) तथा ‘ई’ कारसे युक्त, वीतिहोत्र – अग्नि ( र ) – सहित , अर्धचंद्र (ँ ) – से अलंकृत जो देवीका बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है ।

इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) – का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानंदपूर्ण और ज्ञानके सागर हैं । ( यह मंत्र देवीप्रणव माना जाता है । ऊँकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है । संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा–ज्ञान– क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है । ) ॥

वाणी ( ऐं ) , माया (ह्रीं) , ब्रह्मसू – काम (क्लीं ) , इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च , वही वक्त्र अर्थात् आकारसे युक्त ( चा) , सूर्य ( म ) , ‘ अवाम क्षेत्र ’ – दक्षिण कर्ण ( उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं) , टकारसे तीसरा ड , वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मिश्र ( डा) , वायु ( य ) . वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त ( यै ) और ‘ विच्चे’ यह नवार्णमंत्र उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है ॥

 हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं । हे महाकाली – महालक्ष्मी – महासरस्वती- स्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है । अविद्यारूप रज्जुकी दृढ़ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो ।

हृत्कमल के मध्य में रहनेवाली, प्रात:कालीन सूर्यके समान प्रभावाली , पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली , वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथोंवाली , तीन नेत्रोंसे युक्त , रक्तवस्त्र परिधान करनेवाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवीको मैं भजता हूँ ॥

महाभय का नाश करनेवाली , महासंकट को शांत करनेवाली और महान् करूणाकी साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥

जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते – इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं , जिसका अंत नहीं मिलता – इसलिये जिसे अनंता कहते हैं , जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं , जिसका जन्म समझ में नहीं आता – इसलिये जिसे अजा कहते हैं , जो अकेली सर्वत्र है – इसलिये जिसे एका कहते हैं , जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है – इसलिये जिसे नैका कहते हैं , वह इसीलियी अज्ञेया , अनंता , अलक्ष्या , अजा , एका और नैका कहाती हैं ॥

सब मंत्रों में ‘मातृका ’ – मूलाक्षररूपसे रहनेवाली , शब्दों में ज्ञान ( अर्थ ) – रूप से रहनेवाली , ज्ञानों में ‘चिन्मयातीता’ , शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी’ तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है , वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध है ॥

उन दुर्विज्ञेय , दुराचारनाशक और संसारसागर सए तारनेवाली दुर्गादेवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ ॥

इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है , उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के जपका फल प्राप्त होता है । इस अथर्वशीर्ष को न जानकर जो प्रतिमास्थापन करता है , वह सैंकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता । अष्टोत्तरशत ( १०८) जप ( इत्यादि) इसकी पुरश्चरणविधि है । जो इसका दस बार पाठ करता है , वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है ॥

इसका सायंकाल में अध्ययन करनेवाला दिनमें किये हुए पापों का नाश करता है , प्रात:काल अध्ययन करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापों का नाश करता है । दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है । मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है । नयी प्रतिमा पर जप करने से देवतासान्निध्य प्राप्त होता है । प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है । जो इस प्रकार जानता है , वह महामृत्यु से तर जाता है । इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।

इस प्रकार श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् उपनिषद् पूर्ण हुआ।

इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम्।

 देवी अथर्वशीर्ष | Om Sarve Va Deva | Devi Stuti Mantra| Devi Atharvashirsha || meaning of Sri Devi Atharvashirsha in Hindi.

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