देवी अथर्वशीर्ष | Om Sarve Va Deva | Devi Stuti Mantra| Devi Atharvashirsha || meaning of Sri Devi Atharvashirsha in Hindi.
देवी अथर्वशीर्ष अथर्ववेद में दिया गया है | देवी अथर्वशीर्षम् में देवी को ही परब्रह्म कहा है! वे ही निमित्त तथा उपादान कारण स्वरूपा है ऐसा प्रतिपादन किया है | इसके पाठ से देवी की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है कि साधक आश्चर्यचकित हो उठता है। इस Devi Atharvashirsha के जाप से पांचों अथर्वशीर्ष के जाप का फल मिलता है |
१०८ पाठ से यह स्तोत्र सिद्ध हो जाता है|
इसका सायंकाल में अध्ययन करनेवाला दिनमें किये हुए पापों का नाश करता है , प्रात:काल अध्ययन करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापों का नाश करता है । दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है । मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है । नयी प्रतिमा पर जप करने से देवतासान्निध्य प्राप्त होता है । प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है । जो इस प्रकार जानता है , वह महामृत्यु से तर जाता है । इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।
Devi Atharvashirsh Ke Lyrics or Fayde |
कैसे करें देवी अथार्वशिर्ष का पाठ :
शुभ महुरत में या फिर नवरात्री में स्नान करके देवी की पंचोपचार पूजा करें और फिर devi atharvashirsh का पाठ शुरू करें | १०८ पाठ करने का संकल्प ले |
Lyrics of Devi Atharvashirsh:
ऊँ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ॥१॥
साब्रवीत्- अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यम् च ॥२॥
अहमानन्दानानन्दौ । अहं विज्ञानाविज्ञाने । अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये । अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ॥३॥
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ॥४॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ॥५॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि। अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ॥६॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे ।
य एवम् वेद। स देवीं सम्पदमाप्नोति ॥७॥
ते देवा अब्रुवन्-
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥८॥
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥९॥
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु॥१०॥
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥११॥
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥१२॥
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥१३॥
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥१४॥
एषात्मशक्तिः । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या ।
य एवं वेद स शोकं तरति ॥१५॥
नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ॥१६॥
सैषाष्टौ वसवः। सैषैकादशरुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः । सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च ।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः ।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः ।
सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । कला काष्ठादिकालरूपिणी। तामहं प्रणौमि नित्यम् ।
पापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम्॥१७॥
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् ।
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥१८॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्धचेतसः
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥१९॥
वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम्
सुर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन संमिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः
विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥२०॥
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभां
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥२१॥
नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥२२॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता । यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा । एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥२३॥
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥२४॥
तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥२५॥
इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजपफलमाप्नोति ।
इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति शतलक्षं प्रजप्त्वाऽपि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति ।
शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः ।
दशवारं पठेद्यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥२६॥
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति।प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति।निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति ।
नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवतासान्निध्यं भवति ।
प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्यां महादेवीसन्निधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति ।
स महामृत्युं तरति य एवं वेद। इत्युपनिषत् ॥२७॥
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Meaningof Devi Atharvashirsh in Hindi :
ॐ सभी देवता देवी के समीप गये और नम्रता से पूछने लगे – हे महादेवि तुम कौन हो ? |
उन्होंने कहा – मैं ब्रह्मस्वरूप हूँ । मुझसे प्रकृति – पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है ॥
मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ । मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ । अवश्य जाननेयोग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ । पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ । यह सारा दृश्य–जगत् मैं ही हूँ ॥
वेद और अवेद मैं हूँ । विद्या और अविद्या भी मैं, अज्ञा और अनजा भी मैं, नीचे –ऊपर, अगल–बगल भी मैं ही हूँ ॥
मैं रुद्रों और वसुओं के रूप में संचार करती हूँ । मैं आदित्यों और विश्वदेवों के रूपों में फिरा करती हूँ । मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्निका और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण–पोषण करती हूँ ॥
मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ । त्रैलोक्य को आक्रान्त करने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करनेवाले विष्णु, ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ॥
देवों को उत्तम हवि पहुँचानेवाले और सोमरस निकालनेवाले यजमान के लिये हविर्द्रव्योंसे युक्त धन धारण करती हूँ । मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देनेवाली, ब्रह्मरूप और यज्ञार्हों में मुख्य हूँ । मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ । मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करनेवाली बुद्धिवृति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति लाभ करता है ॥
तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है । बड़े- बड़ों को अपने- अपने कर्तव्य में प्रवृत करनेवाली कल्याणकर्त्री को सदा नमस्कार है । गुणासाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी देवी को नमस्कार है । नियमयुक्त होकर हम उन्हें प्रणाम करते हैं॥
उस अग्नि के-से वर्णवाली, ज्ञान से जगमगानेवाली दीप्तिमती, कर्म फल प्राप्ति के हेतु सेवन की जानेवाली दुर्गादेवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करनेवाली देवि ! तुम्हें नमस्कार है ॥
प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते है । वह कामधेनुतुल्य आनन्दायक और अन्न तथा बल देनेवाली वाग् रूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमारे समीप आये ॥
कालका भी नाश करनेवाली, वेदों द्वारा स्तुत हुई विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ॥
हम महालक्ष्मी को जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणी का ही ध्यान करते है । वह देवी हमें उस विषय में ( ज्ञान-ध्यान में ) प्रवृत करें ॥
हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुई और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ॥
काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि – इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स – वर्ण, मातरिश्वा – वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र ( ल), पुन: गुहा (ह्रीं), स, क, ल – वर्ण और माया (ह्रीं ) – यह सर्वात्मिका जगन्माताकी मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ॥
ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करनेवाली हैं। ये ‘श्रीमहाविद्या ’ हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है ॥
भगवती ! तुम्हें नमस्कार है । माता ! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो ॥
( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं – ) वही ये अष्ट वसु है; वही ये एकादश रुद्र हैं; वही ये द्वादश आदित्य हैं; वही ये सोमपान करनेवाले और सोमपान न करनेवाले विश्वदेव हैं; वही ये यातुधान ( एक प्रकार के राक्षस ), असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्धि हैं; वही ये सत्व–रज–तम हैं; वही ये ब्रह्म-विष्णु – रूद्ररूपिणी हैं; वही ये प्रजापति – इंद्र-मनु हैं; वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं; वही कला- काष्ठादि कालरूपिणी हैं; उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष देनेवाली, अंतरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेनेयोग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं ॥
वियत् – आकाश (ह) तथा ‘ई’ कारसे युक्त, वीतिहोत्र – अग्नि ( र ) – सहित , अर्धचंद्र (ँ ) – से अलंकृत जो देवीका बीज है, वह सब मनोरथ पूर्ण करनेवाला है ।
इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (ह्रीं) – का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानंदपूर्ण और ज्ञानके सागर हैं । ( यह मंत्र देवीप्रणव माना जाता है । ऊँकार के समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है । संक्षेप में इसका अर्थ इच्छा–ज्ञान– क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है । ) ॥
वाणी ( ऐं ) , माया (ह्रीं) , ब्रह्मसू – काम (क्लीं ) , इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च , वही वक्त्र अर्थात् आकारसे युक्त ( चा) , सूर्य ( म ) , ‘ अवाम क्षेत्र ’ – दक्षिण कर्ण ( उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं) , टकारसे तीसरा ड , वही नारायण अर्थात् ‘आ’ से मिश्र ( डा) , वायु ( य ) . वही अधर अर्थात् ‘ऐ’ से युक्त ( यै ) और ‘ विच्चे’ यह नवार्णमंत्र उपासकों को आनन्द और ब्रह्मसायुज्य देनेवाला है ॥
हे चित्स्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सद्रूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम सब समय तुम्हारा ध्यान करते हैं । हे महाकाली – महालक्ष्मी – महासरस्वती- स्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है । अविद्यारूप रज्जुकी दृढ़ ग्रंथि को खोलकर मुझे मुक्त करो ।
हृत्कमल के मध्य में रहनेवाली, प्रात:कालीन सूर्यके समान प्रभावाली , पाश और अंकुश धारण करनेवाली, मनोहर रूपवाली , वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथोंवाली , तीन नेत्रोंसे युक्त , रक्तवस्त्र परिधान करनेवाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ पूर्ण करनेवाली देवीको मैं भजता हूँ ॥
महाभय का नाश करनेवाली , महासंकट को शांत करनेवाली और महान् करूणाकी साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ॥
जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते – इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं , जिसका अंत नहीं मिलता – इसलिये जिसे अनंता कहते हैं , जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं , जिसका जन्म समझ में नहीं आता – इसलिये जिसे अजा कहते हैं , जो अकेली सर्वत्र है – इसलिये जिसे एका कहते हैं , जो अकेली ही विश्वरूप में सजी हुई है – इसलिये जिसे नैका कहते हैं , वह इसीलियी अज्ञेया , अनंता , अलक्ष्या , अजा , एका और नैका कहाती हैं ॥
सब मंत्रों में ‘मातृका ’ – मूलाक्षररूपसे रहनेवाली , शब्दों में ज्ञान ( अर्थ ) – रूप से रहनेवाली , ज्ञानों में ‘चिन्मयातीता’ , शून्यों में ‘शून्यसाक्षिणी’ तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है , वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध है ॥
उन दुर्विज्ञेय , दुराचारनाशक और संसारसागर सए तारनेवाली दुर्गादेवी को संसार से डरा हुआ मैं नमस्कार करता हूँ ॥
इस अथर्वशीर्ष का जो अध्ययन करता है , उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के जपका फल प्राप्त होता है । इस अथर्वशीर्ष को न जानकर जो प्रतिमास्थापन करता है , वह सैंकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता । अष्टोत्तरशत ( १०८) जप ( इत्यादि) इसकी पुरश्चरणविधि है । जो इसका दस बार पाठ करता है , वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवी के प्रसाद से बड़े दुस्तर संकटों को पार कर जाता है ॥
इसका सायंकाल में अध्ययन करनेवाला दिनमें किये हुए पापों का नाश करता है , प्रात:काल अध्ययन करनेवाला रात्रिमें किये हुए पापों का नाश करता है । दोनों समय अध्ययन करनेवाला निष्पाप होता है । मध्यरात्रि में तुरीय संध्या के समय जप करने से वाक् सिद्धि प्राप्त होती है । नयी प्रतिमा पर जप करने से देवतासान्निध्य प्राप्त होता है । प्राणप्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणोंकी प्रतिष्ठा होती है। भौमाश्विनी योग में महादेवी की सन्निधि में जप करने से महामृत्यु से तर जाता है । जो इस प्रकार जानता है , वह महामृत्यु से तर जाता है । इस प्रकार यह अविद्या नाशिनी ब्रह्मविद्या है।
इस प्रकार श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् उपनिषद् पूर्ण हुआ।
इति श्रीदेव्यथर्वशीर्षम् सम्पूर्णम्।
देवी अथर्वशीर्ष | Om Sarve Va Deva | Devi Stuti Mantra| Devi Atharvashirsha || meaning of Sri Devi Atharvashirsha in Hindi.
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