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Shiv Suvarnmala Stuti Lyrics With Hindi Meaning

Shiv Suvarnmala Stuti Lyrics With Hindi Meaning, शिव स्वर्णमाला स्तुति अर्थ सहित, शंकराचार्य जी द्वारा रचित शिव स्तुति.  आदिगुरु शंकराचार्य जी ने शिव स्वर्णमाला स्तुति की रचना की है जिसमे भगवान शंकर की आराधना की है. इसके पाठ से भगवान शिव की कृपा से हमारा जीवन सफल हो सकता है.  Shiva Suvarnamala Stuti में भगवान शिव की महिमा का गान है. जो लोग भौतिक के साथ अध्यात्मिक सफलता चाहते हैं उनके लिए ये अति महत्त्वपूर्ण है, इसके पाठ से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है.  Shiv Suvarnmala Stuti Lyrics With Hindi Meaning सुनिए YouTube में  Shiva Suvarnamala Stuti Lyrics – शिव स्वर्णमाला स्तुति ॥ शिव स्वर्णमाला स्तुति॥ अथ कथमपि मद्रसनां त्वद्गुणलेशैर्विशोधयामि भो । साम्ब सदाशिव शंभो शंकर शरणं मे तव चरणयुगम् ॥ १ ॥ आखण्डलमदखण्डनपण्डित तण्डुप्रिय चण्डीश भो । साम्ब सदाशिव शंभो शंकर शरणं मे तव चरणयुगम् ॥ २ ॥ इभचर्माम्बर शम्बररिपुवपुरपहरणोज्ज्वलनयन भो । साम्ब सदाशिव शंभो शंकर शरणं मे तव चरणयुगम् ॥ ३ ॥ ईश गिरीश नरेश परेश महेश बिलेशयभूषण भो । साम्ब सदाशिव शंभो शंकर शरणं मे ...

Ashtavakra Geeta Bhaag 3

अष्टावक्र गीता भाग-3, राजा जनक को ज्ञान होने के उनके विचारों को सुनके अष्टावक्र जी ने क्या कहा ?

अष्टावक्र गीता के भाग 2 में हमने जाना कि राजा जनक को ज्ञान होने के बाद उनके अंदर से किस प्रकार के विचार स्फुरित हुए उनके विचार सुनने के बाद अष्टावक्र जी राजन की स्थिति को सही तरीके से जांचना चाहते थे की कहीं राजा को बौद्धिक भ्रम तो नहीं हुआ है या फिर वास्तव में आत्मज्ञान हुआ है और इसीलिए उन्होंने कुछ प्रश्न किये और उन्हें कुछ बातें बताई जिसका वर्णन अष्टावक्र गीता के भाग 3 में दिया गया है तो आइए जानते हैं की अष्टावक्र जी क्या कहते हैं |

अष्टावक्र गीता भाग-3, राजा जनक को ज्ञान होने के उनके विचारों को सुनके अष्टावक्र जी ने क्या कहा ?
Ashtavakra Geeta Bhaag 3

Astavakra Geeta in Hindi (Third Lesson):

  1. अद्वैत अविनाशी आत्मा को यथार्थ में पहचान करके तुझ आत्मज्ञानी धीर को धन संग्रह करने में प्रीति क्यों है? ||1||
  2. आश्चर्य है आत्मा के अज्ञान से विषय का भ्रम होने पर वैसी ही प्रीति होती है जैसे सीपी के अज्ञान से चांदी के भ्रम में लोभ पैदा होता है ||2||
  3. जिस आत्मा रूपी समुद्र में यह संसार तरंगों के समान स्फुरित होता है, वही मैं हूं, इस प्रकार जान करके तू क्यों दीनों की तरह दौड़ता है ? ||3||
  4. यह सुनकर भी कि आत्मा शुद्ध, चैतन्य और अत्यंत सुन्दर है तुम कैसे जननेंद्रिय में आसक्त होकर मलिनता को प्राप्त हो सकते हो ||4||
  5. आत्मा को सब भूतों में और आत्मा में सब भूतों को जानते हुए भी मुनि को ममता होती है यही आश्चर्य है ||5||
  6. परम अद्वैत का आश्रय पाया हुआ और मोक्ष के लिए भी उद्धत हुआ पुरुष काम के वश में होकर क्रीडा के अभ्यास से व्याकुल होता है | यही आश्चर्य की बात है ||6|| 
  7. काम को उद्भुत ज्ञान का शत्रु जानकर भी दुर्बल और अंत काल को प्राप्त हुआ पुरुष काम की इच्छा करता है यही आश्चर्य है ||7||
  8. जो इहलोक और परलोक के भोग से विरक्त हैं जो नित्य और अनित्य का विचार रखता है और मोक्ष को चाहने वाला है, वह भी मोक्ष से भय करता है यह आश्चर्य की बात है ||8||
  9. ज्ञानी पुरुष तो भोक्ता हुआ भी और पीड़ित होता हुआ भी नित्य केवल आत्मा को देखता हुआ ना तो प्रसन्न होता है और ना ही कोप करता है ||9||
  10. अपने चेष्टारत शरीर को जो दूसरे की भांति देखता है वह महाशय पुरुष प्रशंशा और निंदा में भी कैसे क्षोभ को प्राप्त होगा ||10||
  11. जिसकी अज्ञानता दूर हो गई है ऐसा धीर पुरुष इस विश्व को केवल माया रूप देखता हुआ मृत्यु के आने पर भी क्यों डरेगा ||11||
  12. जिस महात्मा का मन मोक्ष में भी इच्छा रहित है उस आत्मज्ञान से तृप्त हुए पुरुष की बराबरी किसके साथ हो सकती है ||12||
  13. जो यह जानता है कि यह दृश्य स्वभाव से ही कुछ नहीं है वह यह कैसे देख सकता है कि यह ग्रहण करने के योग्य है और यह त्यागने के योग्य है ||13||
  14. जिसने विषय वासना के बंधन को अपने अंतःकरण से त्याग दिया है जो द्वंद से रहित है, जो आशारहित है ऐसे पुरुष को देव योग से प्राप्त हुई वस्तु न दुख के लिए है न संतोष के लिए है ||14||
तो इस प्रकार अष्टावक्र गीता का तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ जिसमे की अष्टावक्र जी ने राजा जनक के ज्ञान की सत्यता को जनने के लिए कुछ प्रश्न किये | 


Astavakra Geeta in Sanskrit (थर्ड Lesson):

अष्टावक्र उवाच - अविनाशिनमात्मानं एकं विज्ञाय तत्त्वतः।

तवात्मज्ञानस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः॥१॥


आत्माज्ञानादहो प्रीतिर्विषयभ्रमगोचरे।

शुक्तेरज्ञानतो लोभो यथा रजतविभ्रमे॥२॥


विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरङ्गा इव सागरे।

सोऽहमस्मीति विज्ञाय किं दीन इव धावसि॥३॥


श्रुत्वापि शुद्धचैतन्य आत्मानमतिसुन्दरं।

उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति॥४॥


सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।

मुनेर्जानत आश्चर्यं ममत्वमनुवर्तते॥५॥


आस्थितः परमाद्वैतं मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।

आश्चर्यं कामवशगो विकलः केलिशिक्षया॥६॥


उद्भूतं ज्ञानदुर्मित्रम- वधार्यातिदुर्बलः।

आश्चर्यं काममाकाङ्क्षेत् कालमन्तमनुश्रितः॥७॥


इहामुत्र विरक्तस्य नित्यानित्यविवेकिनः।

आश्चर्यं मोक्षकामस्य मोक्षाद् एव विभीषिका॥८॥


धीरस्तु भोज्यमानोऽपि पीड्यमानोऽपि सर्वदा।

आत्मानं केवलं पश्यन् न तुष्यति न कुप्यति॥९॥


चेष्टमानं शरीरं स्वं पश्यत्यन्यशरीरवत्।

संस्तवे चापि निन्दायां कथं क्षुभ्येत् महाशयः॥१०॥


मायामात्रमिदं विश्वं पश्यन् विगतकौतुकः।

अपि सन्निहिते मृत्यौ कथं त्रस्यति धीरधीः॥३- ११॥


निःस्पृहं मानसं यस्य नैराश्येऽपि महात्मनः।

तस्यात्मज्ञानतृप्तस्य तुलना केन जायते॥३- १२॥


स्वभावाद् एव जानानो दृश्यमेतन्न किंचन।

इदं ग्राह्यमिदं त्याज्यं स किं पश्यति धीरधीः॥१३॥


अंतस्त्यक्तकषायस्य निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।

यदृच्छयागतो भोगो न दुःखाय न तुष्टये॥१४॥


अगर अष्टावक्र गीता से संबन्धित कोई विचार आप बंटाना चाहते हैं तो कमेंट बॉक्स में लिख सकते हैं | 


अष्टावक्र गीता भाग-3, राजा जनक को ज्ञान होने के उनके विचारों को सुनके अष्टावक्र जी ने क्या कहा ?

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